बुधवार, 19 मई 2010

दंतेवाड़ा के जख्म

असहाय चिदंबरम। खामोश मनमोहन। यूपी दौरे पर राहुल और सोनिया। छुट्टी मना रहे हैं गडकरी। भाजपा में गुटबाजी और वामपंथियों की चुप्पी, लेकिन दंतेवाड़ा में शहीद हुए लोगों के परिजन जबाव चाहते हैं। यह खामोशी तूफान का अंदेशा देती है। आखिर हुक्मरां चाहते क्या हैं? क्यों नक्सली समस्या के खात्मे के रास्ते नहीं तलाशे जाते? जवानों के खून पर आखिर कब तक राजनीति होगी?
दंतेवाड़ा में दो-दो बार खून बहा है। गृहमंत्री हाथ खड़े कर चुके हैं। मुख्य विपक्षी दल झारखंड़ में सत्ता का रास्ता निकल रहा है। राहुल मिशन यूपी पर सवार हैं तो माया और मुलायम एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। ममता बनर्जी तो शायद इसके लिए भी दंतेवाड़ा जाने वालों को ही जिम्मेदार ठहराएं। वे पहले ही रेलवे स्टेशन की भगदड़ पर ऐसा कर चुकी हैं। देश के बारे में कौन सोचेगा? भूख और गरीबी से जूझ रही जनता को नक्सल और आतंकवाद के सामने खुला छोड़ दिया गया है। जनता बेचैन है, लेकिन दिल्ली ने खामोश चादर ओढ़ ली है। लगता है अभी देश की सियासत को कई रंग देखने हैं।

बुधवार, 5 मई 2010

खेल संघों की जंग


खेल संघों को लेकर जंग जारी है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए संघ पदाधिकारी एक मंच पर आ गए हैं। काश कभी खेलों के लिए ऐसी एकजुटता देखने को मिलती तो भारतीय खेलों की हालत कुछ और होती। लंबे समय से कुर्सी पर काबिज राजनीतिज्ञ और नौकरशाह हो-हल्ला कर रहे हैं। आखिर उन्हें खेल संघों की कुर्सी क्यों चाहिए? दरअसल सालों से खेलों के नाम पर उनका विकास हो रहा है।क्रिकेट बोर्ड तो दुनिया का सबसे ज्यादा पैसे वाली संस्था है, लेकिन दूसरे खेल संघों में भी खेलों के नाम पर घपला कम नहीं है। तभी तो कलमाड़ी, गिल और मल्होत्रा जैसे लोग प्रधानमंत्री से गुहार लगा रहे हैं। भारत में पैसे के अभाव में प्रतिभा दम तोड़ देती हैं और दूसरी तरफ खेलसंघों के नाम पर नौकशाह और नेता ऐश कर रहे हैंं। कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है और सभी को उसका स्वागत करना चाहिए।अब थोड़ी सी गंभीर कोशिश खेलों को सुधारने की भी हो जाए।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

बंदूक और विकास

नक्सलवाद को लेकर देश में हो-हल्ला हो रहा है। पक्ष और विपक्ष सभी इस मामले में एकजुट है। सभी चाहते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाकों में सख्त कार्रवाई हो। कुछ तो हवाई हमले के भी पक्षधर है, लेकिन हम सभी समस्या के मूल से बहुत पीछे हट रहे हैं। देश का आम नागरिक होने के बाद भी आदिवासियों को उनका हक नहीं मिला। जल, जंगल और जमीन के लिए वे संघर्ष कर रहे हैं। नक्सली उनके बीच जाकर काम करते हैं और हम एअर कंडीशन कमरों में बैठकर कार्रवाई के बारे में सोचते हैं। तमाम आतंकी वारदातों के बाद भी हम पाक के सात वार्ता करते हैं, लेकिन नक्सलियों के मामले में ऐसा नहीं है। देश के भटके हुए युवा को मुख्यधारा में जोडऩे का प्रयास करना चाहिए। आदिवासियों को चिंता है कि उनके संसाधन कारपोरेट घरानों को सौंप दिए जाएंगे। यह चिंता वाजिब है। देश में निजीकरण का दौर है और प्राकृतिक संसाधनों को कब्जाने की जंग जारी है।ऐसे में नक्सली आदिवाशियों को यही डर दिखाते हैं। नक्सलवाद का खात्मा बंदूक नहीं विकास से हो सकता है।गांधी के देश में उनके ही सिद्धातों को भुला दिया गया। भगवान राम भी वनवासियों के बीच चौदह साल रहे और उन्हें मुख्यधारा में जोड़ा तो फिर आज के हुक्मरां ग्रीन हंट पर भरोसा क्यों कर रहे हंै? कहीं इसके पीछे भी मल्टीनेशनल कंपनियों का दिमाग तो नहीं? देश को जनता को जानने का हक है कि आखिर इस समस्या से निपटने का सरकार के पास क्या हल है? वक्त आ गया है कि सभी राजनैतिक दलों को इस मामले पर अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

आईपीएल-इंडियन पैसा लीग










आईपीएल के उठे विवाद ने क्रिकेट जगत में तूफान ला दिया है। एक केंद्रीय मंत्री को जाना पड़ा तो आईपीएल चेयरमैन की विदाई पटकथा लिखी जा चुकी है। पैसा, पावर और ग्लैमर के घालमेल ने आईपीएल में क्रिकेट का नया रूप दिखाया है। बाजार इस खेल के नियम तय कर रहा है। खेल को अपने तरीकों से बाजार ने बदल दिया। यह बाजार का जलवा है कि मैथू हैडन के हाथ में मंगूज बल्ला नजर आता है। वालीवुड की तमाम सुंदरियां आईपीएल मैचों में नजर आती हंै। देश के बड़े-बड़े उद्योगपति मैदान के बाहर ताली बजा रहे हैं। लिकर किंग विजय माल्या, उद्योगपति मुकेश अंबानी टीमों का हौंसला बढ़ा रहे हैं। उधर ग्लैमर का तड़का भी कुछ कम नहीं है। शिल्पा शेट्टी, शहारुख खान, प्रिटी जिंटा सभी दल-बल के साथ मैदान पर हाजिर हंै। दरअसल यह क्रिकेट की दीवानगी नहीं है।क्रिकेट तो पहले भी खेला जाता था, तब माल्या और अंबानी नजर नहीं आते थे। यह क्रिकेट का बाजार है। करोडों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। ऐसे में यहां भ्रष्टाचार की दलदल होना लाजमी था। आईपीएल केवल खेल नहीं रहा, व्यापार हो गया है। नेताओं का कालाधन इसमे लगा है। बीते बीस सालों में क्रिकेट में अकूत धन आया है। सभी प्रदेशों के क्रिकेट बोर्डों पर नजर डालें तो सत्ताधारी दलों का कब्जा है। अब क्रिकेट दुधारू गाय है और सभी उसे दुहना चाहते हैं। थरुर और मोदी तो केवल एक उदाहरण है। इस हमाम में सभी नंगे हैं। यह तो केवल शुरुआत है। अभी तो हमें बड़े-बड़े खुलासों का सामना करना है। थुरुर के मामले में साफ है कि राजनेता किस तरह आर्थिक हितों को प्रभावित करते हैं। जनता के तथाकथित सेवकों के एक इशारे पर करोड़ों की सौगात मिल जाती है। अब आईपीएल से सट्टेबाजी की बू भी आ रही है। अगर जांच सही तरह हुई( जिसकी कम संभावना है) तो कई बड़ों की गर्दन फंसती नजर आएगी। तीसरा सीजन पूरा होते-होते मोदी की विदाई तय हो गई है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पूरे मामले पर चुप्पी साधे बैठे रहे बीसीसीआई और सरकार का दामन पाक-साफ है। अब तो आईपीएल के छींटे शरद पवार पर भी पड़ रहे हैं। देखते हैं कि इंडियन पैसा लीग का यह ऊंट किस करवट बैठता है।
----- गौरव त्‍यागी

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

बदल रही है हिंदी, अचरज कैसा

भाषा पर मेरे लेख को लेकर कुछ मित्रों ने आपत्ति जताई है। मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरा मुख्य विषय भाषा था। केवल हिंदी नहीं। दरअसल मैं वैश्वीकरण के दौर में तमाम भाषाओं के बारे में बात कर रहा था। जहां तक हिंदी का सवाल है तो बाजार के चलते हिंदी का विकास तय है। नब्बे के बाद बाजार भाषा ही नहीं रिश्तों को भी तय कर रहा है। ऐसे में हिंदी के भविष्य को लेकर मैं यह लेख लिख रहा है। उम्मीद है कि मेरे मित्रों की जिज्ञाषा का कुछ समाधान होगा। मैं यह भी स्पष्ट कर रहा हूं कि मैं कोई भाषा शास्त्री नहीं हूं। मैं संचार माध्यमों से जुड़ा आदमी हूं। ऐसे में संचार की भाषा इस्तेमाल करने का प्रयास करता हूं।
बदल रही है हिंदी, अचरज कैसा


मानव सभ्यता के विकास में आदमी ने तरह-तरह के अविष्कार किए हैं। इन अजब खोजों के सहारे उसने जीवन की विकास यात्रा को परवान चढ़ाया है तो जिंदगी को आसान भी किया है। आदमी के बनाए हथियारों में सबसे अहम है भाषा। इसने आदमी की बौद्धिक उन्नति का रास्ता बनाया। भाषा ने पुल का काम किया है। संवाद जोड़ता है। भाषा हमारे बीच का दरवाजा है, जिसके सहारा एक-दूसरे की भावनाओं को अभिव्यक्त किया जाता है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ भाषाओं का विकास हुआ। विकास के इस क्रम से हिंदी भी अछूती नहीं है। भूमंडलीकरण के दौर में सूचना और प्रौद्योगिकी के विस्तार ने हिंदी को मजबूत किया है।
आर्थिक नीतियों के चलते देश में नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण की बयार चली। बाजार ने तमाम पहलुओं को प्रभावित किया। वैश्वीकरण ने देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। हिंदी भी इससे अछूती नहीं है। पहले शंका जाहिर की गई कि शायद वैश्वीकरण का यह पहियां हिंदी के लिए घातक साबित होगा, लेकिन हिंदी का बाजार उसके लिए वरदान बनकर खड़ा हो गया। बाजार की ताकत है कि हिंदी का जो विकास शासन से नहीं हो सका, वह भूमंडलीकरण के चलते हुआ। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने भाषा के लिए नए रास्ते खोल दिए। इंटरनेट पर अंग्रेजी के साम्राज्य को हिंदी चुनौती दे रही है। भूमंडलीकरण के बाद देश में हिंदी चैनल्स की बाढ़ सी आ गई। आज हिंदी सैटेलाइट पर सवार है। तकनीक के विकास के साथ हिंदी का रास्ता आसान हो गया। घरों में चलते टीवी, अखबार, रेडियो, अंतरिक्ष में तैरते सैटेलाइट हिंदी को बढ़ा रहे हैं। तकनीकी विकास ने प्रसार को आसान कर दिया है। सूचनाएं सेकेंडों में इधर से उधर घूम रही हैं।
कंप्यूटर और इंटरनेट आने पर समझा जा रहा था कि अब शायद अंग्रेजियत का दौर आ गया है, लेकिन ऐसा नहीं है। इसने धीरे-धीरे हिंदी की चाल चलना शुरू कर दिया है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 42 करोड लोगों की भाषा हिंदी है। इस बाजार को लेकर नेट और कंप्यूटर पर हिंदी छाने लगी है। अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी के शब्द रोमन में मिलते हैं तो कई बार विज्ञापन की भाषा हिंदी होती है। मतलब साफ है कि हिंदी के बाजार के चलते वह अपनी जगह बना रही है। केवल तीन साल पहले इंटरनेट पर हिंदी के ब्लाग की संख्या सात सौ थी, यह आज बढ़कर बीस हजार पहुंच गई है। आने वाले दो सालों में विशेषज्ञ इसके लाख का आंकड़ा पार करने का अनुमान लगा रहे हैं। हिंदी के चाहने वाले ब्लाग के सहारे भाषा का विकास कर रहे हैं। भारत ही नहीं विदेशों में भी हिंदी ब्लागों को पढ़ा और सराहा जाता है। ट्विटर पर हिंदी के इस्तेमाल के लिए मांग उठने लगी है। एनडीटीवी के पंकज पचौरी भी इसकी मांग उठा चुके हैं। एप्पल कंपनी को हिंदी एप्लीकेशन के लिए बार-बार लिखा जा रहा है। आशा है कि जल्द ही कंप्यूटर के तमाम एप्लीकेशन हिंदी में होंगे।
भारत में पांच करोड से ज्यादा इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले हैं। यूनीकोड के सहारे आप विंडोज 2000 या उससे ऊपर के संस्करण में टेक्सट टाइप कर सकते हैं। गूगल ने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद की सुविधा दे दी है। इस तकनीकी विकास से हिंदी वालों को सहूलियत हुई है। कुछ मित्रों ने हिंदी-विमर्श नाम से एक मंच बनाया है। इस पर ईमेल के माध्यम से हिंदी की तकनीकी समस्याओं का समाधान किया जाता है। यहंा हिंदी में हो रहे तकनीकी विकास को बताया जाता है। आप हिंदी के संबंध में कोई भी तकनीकी जिज्ञासा इस मंच पर हल कर सकते हैं। यह सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के चलते संभव हो पाया है।
आज दुनिया तेजी के साथ बदल रही है। इस तेज दौर में नई तकनीक ने हिंदी के विकास में योगदान दिया है। करीब सत्तर साल पहले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भाषा की दिक्कत आई। मित्र देश की सेनाओं में पूरी दुनिया के सैनिक थे। अलग-अलग देशों से आए ये सैनिक भाषा के स्तर पर अलग-अलग थे। एक आदेश को उन तक कैसे पहुंचाया जाए? यह बड़ा सवाल था। तब पहली बार आवश्यक वाक्यों का अनुवाद किया गया। भाषा विशेषज्ञों ने जंग--ए-मैदान के लिए अनुवाद की राह तलाश की। यह मशीनी अनुवाद की दिशा में उठा पहला कदम था। मित्र देशों के सैनिकों तक मशीनी अनुवाद के सहारे संदेश फटाफट पहुंचने लगे। 2007 में जब जापान के प्रधानमंत्री सिंजो आबे जापानी में भाषण दे रहे थे। उनके हाथ में एक गैजेट था। यह उपकरण उनकी बात को इंग्लिश और चीनी भाषा में अनूदित कर रहा था। यह उपकरण क्योटो की एक कंपनी ने बनाया। पहले-पहल इस तरह के गैजेट जापानी और चीनी भाषा में बनाए गए। अब हिंदी में भी इस तरह के गैजेट बनाने पर काम चल रहा है। आईआईआईटी हैदराबाद ने मशीन ट्रांसलेशन सिस्टम बनाया है। इसे उन्होंने शक्ति नाम दिया है। इस अनुवाद को करने में चौबीस पेज पर काम करना पड़ता है, लेकिन कंप्यूटर पर यह बिजली की गति से अनुवाद करता है। गूगल ने अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद शुरू कर दिया है। अंग्रेजी में कोई भी वाक्य टाइप करने पर उसका हिंदी अनुवाद कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाता है। इतना तय है कि आने वाले समय में मशीनी अनुवाद की गति और रफ्तार पकड़ेगी और इससे हिंदी का भला होगा। तब अग्रेजी न आने का रोना नहीं रोया जाएगा। मशीन सेकेंडों में अग्रेजी वाक्यों का अनुवाद कर देगी।
हिंदी का सबसे ज्यादा विरोध दक्षिण के राज्यों में हुआ, लेकिन अब बाजार के चलते वहां भी हिंदी को पढ़ा जाता है। भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी की ताकत लगातार बढ़ रही है। 1995 में विश्व की पांच भाषाओं को मीडिया मुगल रुपर्ट मर्डोक ने भविष्य की ताकतवर भाषा बताया था, उसमे हिंदी शामिल है। मर्डोक हिंदी के इस बाजार की ताकत को पहले ही समझ गए थे और उन्होंने इसे भुनाने की तैयारी भी कर दी थी। हिंदी को लेकर शुद्धतावाती खूब हल्ला मचाते हैं। वे बाजार का विरोध भी करते हैं, लेकिन इतना तय है कि हिंदी का लाभ बाजार के विस्तार से हुआ है। इंटरनेट पर लगातार बढ़ते ब्लाग, हिंदी में हो रहे काम, बढ़ता समाचार पत्रों का दायरा, हिंदी के विस्तार का सूचक है।
हिंदी को जो लोकतंत्र नहीं दे पाया, वह बाजार ने दिया है। हिंदी के क्षेत्रीय मीडिया की तरक्की, इलेक्ट्रानिक मीडिया का विस्तार, एफएम का फैलाव, नेट पर खुलती हिंदी साइटें और ब्लाग। टीवी की दुनिया में हिंदी चैनल को ही मुनाफे की नजर से कामयाब बताया गया है। एफएम चैनल हिंदी में हैं। हिंदी का प्रकाशन उद्योग लंबे समय से जड़ता का शिकार रहा, लेकिन अब इसमे ताजगी की लहर है। पेंग्विन, पीयर्सन, एज्यूकेशन और प्रेटिंस हाल जैसे कुछ प्रकाशन हिंदी के पुस्तक बाजार में कूद पड़े हैं। अमेरिका के 75 कॉलेजों और 45 विश्वविद्यालयों में करीब 1500 छात्र हिंदी में दाखिला लेते हैं। मतलब साफ है कि हिंदी का बाजार भाव है। इसे विदेशी भी मान रहे हैं।
पिछले दशक में हिंदी के क्षेत्र में बड़ी क्रांति हुई। अरविंद कुमार ने थिसायरस की रचना की। अब तो उनका बाइलिंग्वल भी छपकर आ गया है। इस थियारस को उन्होंने करीब बीस साल में तैयार किया है। थिसारस की रचना में तकनीक भी शामिल है। अरविंद कुमार कार्डों पर शब्द नोट करते थे। बाद में उन्होंने एक कंप्यूटर खरीदा और उस पर इन शब्दों का संग्रह इक्ठ्ठा किया। इस कंप्यूटर खरीद के लिए उनके बेटे को विदेश भी जाना पड़ा, लेकिन हिंदी के क्षेत्र में बड़ा काम हो गया। अरविंद कुमार कहते हैं कि आज हिंदी फल-फूल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी ने हिंदी को आसान कर दिया है। दरअसल भाषा आम जन की होती है। यह प्रयोगशाला में नहीं गढ़ी जाती। जनता अपनी भाषा खुद बनाती है और आज की पीढ़ी अपने हिसाब से हिंदी को तैयार कर रही है तो अचरज कैसा? हम सबकों हिंदी के इस विकास और विस्तार का स्वागत करना चाहिए। रोज हिंदी में शब्दों की संख्या बढ़ रही है। अपने विस्तार में हिंदी का सहारा लेकर ताकतवर बना बाजार अब हिंदी को भी शक्तिशाली बना रहा है। यह ताकत ही है कि हिंदी को लेकर अंगरेजी दां लोगों तक का रवैया बदलता नजर आ रहा है। आने वाले दिनों में हिंदी का विकास तय है।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

ये कहां आ गए हम

तेजी से बदलते दौर में कई नई तरह की चुनौतियां आ गई है। बुधवार को मैं रिपोर्टिंग के सिलसिले में एक हैल्थ चैकअप कैंप पहुंचा। वहां हड्डियों की निशुल्क जांच चल रहीथी। दोपहर बाद आए परिणाम चौकाने वाले थे। करीब अस्सी फीसदी लोगों की हड्डियों में कैल्शियम कम था। ताज्जुब की बात ये थी कि बूढ़ों के साथ-साथ जवान भी इसका शिकार थे।
डा.बीपी त्यागी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि बदलती जीवन शैली इसका कारण है। तेजी से हो रहे शहरीकरण ने नए-नए रोग दिए हैं। दरअसल आस्टोपोरेसस रोग से बचने के लिए कैल्शियल लेना और धूप में निकलना जरूरी है। एक बेहतर लाइफ स्टाइल की तलाश में गांव से शहर आई पीढ़ी के पास मानसिक तनाव तो बहुत है, लेकिन शारीरिक काम नहीं है। मनोचिकित्सक डा.संजीव त्यागी ने बताया कि अवसाद के केस बढ़ गए हैं। बड़े-बुजुर्ग तो छोड़ो युवा पीढ़ी के साथ किशोर भी फ्रस्टेट हैं। यह वो पीढ़ी है जो हाथ बढ़ाकर चांद छूना चाहती है, लेकिन थोड़ी से असफलता भी बर्दाश्त नहीं कर पाती।
अभी हम भूख, कुपोषण, टीवी से होने वाली मौतें नहीं रोक पाई और पढ़ी-लिखी अगली पीढी नए-नए रोगों का शिकार हो रही है। समाजशास्त्रीय परिभाषाएं बदल रही हैं। रिश्तों को नए ढ़ंग से परिभाषित किया जा रहा है। इस बार डब्लूएचओ भी शहरीकरण पर अपनी चिंता जता रहा है।गांवों का देश भारत अपने मूल्यों, संस्कारों और सरोकारों के लिए जाना जाता है, लेकिन वैश्वीकरण में यही सब दांव पर लगा है।विकास को केवल शेयर मार्केट या लाल नोटों से नहीं नापा जा सकता है। अगर मानव के संपूर्ण विकास की बात करें तो यही कहना पड़ेगा कि अंधी दौड़ में ये कहां आ गए हम?

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

मेरे यार की टेंशन



अरे उदास क्यों बैठे हो यार?
अब तो जीना बेकार लगता है, सोचता हूं कि अब खुदकुशी कर लूं।
बात क्या है? आखिर बताओ तो
क्या करु...कुछ समझ नहीं आता।
हुआ क्या?
अरे पूरे देश में मातम है, तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता?
मैं समझा नहीं।
अपनी सानियां को पूरे देश में दुल्हा नहीं मिला, वह पाकिस्तानी होने जा रही है। यह मुझ जैसे युवा कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?
अरे भई...सानिया अपनी मर्जी से शादी कर रही है। इसमे परेशान होने वाली क्या बात है?
तुम्हें इसमे बात नजर नहीं आती?
नहीं...
मुझे तो लगता है कि तुम टीवी नहीं देखते हो। अरे पूरा देश न्यूज चैनल पर चौबीस घंटे इसी बात को देख रहा है, सुबह जब अखबबार उठाता हूं तो सानिया, शादी और सस्पेंस पढ़ता हूं। बीते सप्ताह भर से चौबीस घंटे यही तो देख-सुन रहा है।
अच्छा परेशान न हो, जवानी में ही बीपी का रोग हो जाएगा।
अब इस जवानी का क्या करुगां? सानिया तो जा रही है, पहले इन्हीं टीवी वालों ने इसे सनसनी दिखाया था। अब शादी पर सस्पेंस नजर आ रहा है।
तुझे क्या लगता है, सानिया और शोएब की शादी हो पाएगी?
मुझे तो लगता है कि शादी के मामले पर भारत-पाक शिखर वार्ता होगी। इसका भी शिमला और आगरा की तरह कोई हल नहीं निकलेगा।
चल छोड़, सुबह से बक-बक कर रहा है। घर में कुछ खाने को है, भूख लगी है।
नहीं यार, राशन खत्म हो गया है। जेब में पैसे भी नहीं है।
अजीब बेवकूफ आदमी हो। घर में रोटी नहीं है और तुम्हें सानिया -शोएब की पड़ी है।
अरे, बेवकूफ तो तुम हो। रोटी तो देश के चालीस फीसदी घरों में नहीं है। हमारी सरकार रोटी के बारे में नहीं सोचती। क्या भूख से मरने वालों को लेकर खबरों का ऐसा बवंडर मचा है, जैसा सानिया और शोएब की शादी पर हुआ है। दिल्ली और इस्लामाबाद रोटी के बारे में नहीं सोचते। उनके लिए दूसरे मुद्दे हैं।
थोड़ा पानी ही पिला दे।
पानी तो दो दिन पहले चला गया।
तो फिर क्या करें।
नुक्कड़ की दुकान पर चलते हैं, शायद सानिया और शोएब के बारे में कोई नई जानकारी आई हो!

गुरुवार, 25 मार्च 2010

लोहिया के लोग


बीते तीन दशकों से लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं ने ही लोहिया की विचारधारा को सबसे ज्यादा पलीता लगाया है। जब पूरा देश महंगाई से जूझ रहा है। जनता त्रस्त है। सडक़ों पर संघर्ष शुरु हो गया है। लोहिया के लोग मूर्ति अनावरण में उलझे हैं। उनके जन्मदिन के नाम पर राजनीति हो रही है।
आजादी के बाद भारत की राजनैतिक धारा को डा.राममनोहर लोहिया ने बहुत प्रभावित किया है। उन्होंने कांग्रेस के एकछत्र राज में सेंध लगाई। महिलाओं की स्थिति से लेकर पिछड़ों के संघर्ष में लोहिया का बड़ा योगदान रहा। चश्मे के पीछे से झांकती लोहिया की आंखें अगली पीढिय़ों के लिए सपने देखती थी। लोहिया ने देश में समाजवाद की ऐसी बयार चलाई कि समाजवादी होना भी फैशन हो गया। उन्होंने किसान और मजदूर के घरों से नेता तैयार किए तो ग्लैमर जगत के राज बब्बर जैसे लोग भी लोहियावादी हुई। दिल्ली में लोहिया के लोगों का बैनर आज भी लगा नजर आता है,लेकिन लोहिया के विचार गुम हो गए हैं।
लोहिया परिवारवाद और पूंजीवाद के घोर विरोधी थे, लेकिन उनके चेलों को इसी रोग ने घेर लिया। लालू और मुलायम का परिवारवाद अब छुपा नहीं रहा। लालू घोटालों में फंसे खड़े हैं तो सपा की कमान मुलायम ने पूंजीवादियों को सौंप दी थी। खुद को बहुत बड़ा लोहियावादी कहने वाले मुलायम सिंह मंगलवार को लखनऊ की सडक़ों पर मूर्ति अनावरण को लेकर भिड़ते नजर आए। अच्छा होता,अगर मुलायम का यह संघर्ष लोहिया की विचारधारा को लेकर होता।
वैश्वीकरण के बाद देश की राजनीति का चरित्र भी तेजी के साथ बदला है। भाजपा और कांग्रेस की टॉप लीडरशिप से गरीब और मजदूर गायब है। नवगठित गडकऱी ब्रिगेड से साफ है कि अमेरिकी लोकतंत्र की तर्ज पर हमारे राजनेता भी ग्लैमर और यूथ के नाम पर राजनीति का नया चश्मा चढ़ाना चाहते हैं। कांग्रेस के यूथ बड़े नेताओ की औलाद है तो भाजपा भी अछूती नहीं है। वंशवाद का विषवृक्ष सभी दलों में फल-फूल रहा है। ऐसे में लोहिया की जरूरत शिद्दत से महसूस होती है।
डा.राम मनोहर लोहिया ने अपने विचारों को जीवन में ढ़ाल लिया था। लोहिया की मृत्यू के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान हिन्दुस्तान आए। उन्होंने दिल्ली में लोहिया के घर जाने की इच्छा जाहिर की तो बताया गया कि लोहिया का कोई घर नहीं है। खान साहब ने कहा कि वो तो मुझसे भी बड़ा गांधीवादी निकला। जीवन के अंतिम दिनों में लोहिया बीमार थे। कुछ चाहने वालों ने कहा कि अब घरवालों को खबर कर देनी चाहिए। लोहिया ने कहा कि पूरा देश मेरा घर है और देशवासियों को पता है कि उनका आदमी बीमार है। लोहिया का घर चारदीवारी से बढकऱ पूरा देश हो गया था तो आज राजनीति करने वालों के घरों की परिभाषा छोटी हो गई है। आम आदमी का दर्द नहीं झेलने वाले नीतियां बना रहे हैं। सत्तर फीसदी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीची है,लेिन देश को माल्स और मल्टीप्लेक्स के सपने दिखाए जा रहे हैं। कृषि मंत्री शरद पवार फ्रांस महारानी की तर्ज पर रोटी हो तो ब्रेड खाओ का नारा दे रहे हैं। इस समय लोहिया के विचारों की शान को तेज करने की जरूरत है। मूर्तियों पर माला चढ़ाने की जगह जिंदा कौमों को संघर्ष करना चाहिए। शायद यही लोहिया को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

गौरव त्यागी

बुधवार, 17 मार्च 2010

कब मिलेगी गंगा को मुक्ति

कुंभ में डुबकी लगा रहे लाखों लोग अपने लिए मोक्ष की कामना कर रहे हैं। यह कामना गंगा में नहाकर सारे पाप धोने से जुड़़ी है, लेकिन गंगा खुद धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। गंगा की ये मूक सिसकी न तो हमारे हुक्मरां सुन रहे हैं और ना ही कुंभ में शाही सवारी करने वाले बाबा। सरकारी योजनाएं परवान नहीं चढ़ती और सन्यासी असली-नकली साबित करने में जुटे हैं। सबसे खराब बात ये है कि आम आदमी भी गंगा में केवल नहाने तक सीमित है। वह नहीं जानता कि गंगा का मतलब केवल नदी नहीं है। यह करीब 1600 मील के इलाके में की जिंदगी से जुड़ी है।
हजारों साल से गंगा भारत की लाइफलाइन रही है। गंगा और यमुना के बीच का दोआब कृषि के लिए सबसे मुफीद रहा। शायद यही कारण है कि हिंदुओं के लिए गंगा जीवनदायनी रही है। उसकी पूजा की जाती है। गंगा किनारे पडऩे वाले ऋषिकेष, हरिद्वार और बनारस जैसे शहरों में रोज गंगा आरती की जाती है। गंगा के बगैर हिन्दुस्तानी सभ्यता परवान नहीं चढ़ सकती थी। मोक्षदायनी गंगा खुद मानव के कृत्यों के चलते गंदी हो रही है।
14000 फीट की ऊंचाई पर गंगोत्री ग्लेशियर से निकलती है और 2506 किलोमीटर का सफर तय कर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। रास्ते में पडऩे वाले शहरों को गंगा ने आबाद किया है। गंगोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार, इलाहाबाद, बनारस को गंगा के चलते ही धार्मिक नगरियों का दर्जा मिला, लेकिन इन शहरों को गंगा को गंदा नाला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन शहरों में चार सौ मीलियन लोग रहते हैं। एक अनुमान के मुताबिक करीब 20 लाख लोग रोज नहाते हैं। शहरों से निकलने वाला कचरा सीधे गंगा में डाला जाता है। आज हालत ये कि कोलीफार्म बैक्टिरिया हरिद्वार में 5500 है। पीने के लिए पचास से कम, नहाने के लिए 500 से कम और कृषि कार्य के लिए यह 5000 से कम होना चाहिए। बनारस में कोलीफार्म का स्तर तीन हजार गुना ज्यादा है। 89 मिलियन लीटर सीवेज हरिद्वार तक सीधे गंगा में डाला जाता है। औद्योगिक कचरा गंगा को मैला कर रहा है। ऐसा नहीं है कि गंगा की सफाई का कोई प्रयास नहीं हुआ, लेकिन यह सफाई कम और जेब भरने का प्रयास ज्यादा रहा। अप्रैल 1985 में गंगा एक्शन प्लान तैयार किया गया। 15 साल में 901 करोड रुपए इस प्लान पर खर्च हुए। इसके बाद भी गंगा की हालत में सुधार नहीं हुआ। यपीए सरकार ने बजट में अलग से गंगा के लिए धन आवंटित किया है। सैकड़ों एनजीओ की रोजी-रोजी गंगा की सफाई के नाम पर चल रही है। अब वक्त आ गई है जब जनता को खुद गंगा की कमान संभालनी होगी। सदियों तक गंगा इंसान के पाप धोती रही है, लेकिन अब इंसान को गंगा की सफाई करनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि केवल प्लान बनते रहें और गंगा का हाल भी सरस्वती जैसा हो जाए।

गौरव त्यागी

सोमवार, 15 मार्च 2010

पावर कट के सुख

रात खाना खाने बैठा। तेजी से घूमते पंखे में एकाएक ब्रेक लग गए। बिजली ने अपनी कारस्तानी दिखा दी। दस घंटे की गुमनामी के बाद आई बिजली दस मिनट में फिर चलती बनी। भूख के मारे जान निकल रही थी। मोमबत्ती जलाकर फिर से खाने बैठा तो अपनी किस्मत पर हैरान रह गया। बिजली विभाग की मेहरबानी से कैंडल लाइट डिनर का सौभाग्य मिल गया। सौभाग्य की बात भी थी। बड़े-बड़े होटल में कैंडल लाइट डिनर करने का अरमान फटी जेब के चलते कभी परवान नहीं चढ़ा। लेकिन अब तो हर रात कैंडल लाइट डिनर का मजा मिलता है। वैसे इसके लिए पावर अधिकारियों को शत-शत नमन करना चाहिए। बिजली कट से लोगों को कई सुख मिल रहे हैं। इसने दोबारा से संयुक्त परिवारों का अहसास कराया है। रात-रात भर बिजली गायब होने से घर में एकमात्र पंखा इंवर्टर के सहारे सदस्यों का पसीना सुखाता है। दिनभर तू-तू, मैं-मैं करने वाली सास-बहू कट होते ही एक पंखे में 'एअर सुखÓ का मजा लेती हैं। पावर कॉरपोरेशन कट से देश में समाजवाद लागू करने को प्रयासरत है। आरक्षण को इससे दूर रखा गया है। भले ही शहर अल्पसंख्यकों का हो या पिछड़ों का, कट तो झेलना ही होगा। वैसे नेता अगर कट में भी आरक्षण लाभ देने की सोचे तो बहुत फायदा होगा। संस्थानों में जो पढ़ेंगे वो वोट नहीं देंगे, लेकिन जो 'पावर रिजरवेशनÓ से भरी गर्मी बिजली सुख लेंगे, वो जरूर वोट देंगे। कुछ लोग जनरेटर और इंवर्टर से समाजवादी व्यवस्था के प्रथम चरण में सेंध लगाने की भी कोशिश कर रहे हैं। खैर कटौती इतनी लंबी होती है कि जनरेटर की सांस फूलने लगती है और इंवर्टर का दम निकल जाता है। फिर सभी एक से हैं। तपती गर्मी में भी कुछ लोग पानी से डरते हैं। पावर कॉरपोरेशन उन्हें पसीने में नहलाने की सुविधा देता है। गर्मी में कुछ लोग अधिकारियों को कोसते हैं। यह सही नहीं है। ये वो लोग हैं जो सभी को समानता के हक का विरोध करते हैं। गर्मी के मौसम में कॉरपोरेशन अधिकारी भी चिंतन में डूब जाते हैं। चिंतन इस बात का आखिर रोस्टिंग का समय क्या हो? पावर अधिकारियों को लोगों के कैंडल लाइट डिनर से लेकर नहाने और परिवारों को जोडऩे तक का इंतजाम जो करना पड़ता है। अंतिम टुकड़ा तोड़ते ही बिजली फिर आ गई और पंखा चल पड़ा। पंखे की हवा से मोमबत्ती बुझ गई और मेरा कैंडल लाइट डिनर का मजा किरकिरा हो गया। मैं फिर कटौती से मिलने वाले सुख का इंतजार करके लगा।
गौरव त्यागी

बाजार और भाषा

बाजार और भाषानब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के लिए खुली देश की खिड़कियों से अंदर आया तूफान अपना असर दिखाने लगा है। वैश्वीकरण का आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है। बाजार के रथ पर सवार होकर कुलाचें भर रहे वैश्वीकरण ने मूल्य-मान्यताओं को बदल दिया है। घर के बैडरुम में घुसकर ग्लोबल रिमोट समाज को संचालित कर रहा है। लोकल और ग्लोबल का भेद मिट गया है। बाजार के तेज दौड़ते पहिए नए मानक गढ़ रहे हैं। यह दौड़ इतनी तेज है कि किसी को संभलने का मौका नहीं मिलता, बस सबको दौडऩा है। गत डेढ़ दशक में वैश्वीकरण ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। इसका असर गांव से लेकर शहर और अभिजात्य वर्ग से गरीब वर्ग पर साफ दिखता है। भाषा भी इससे अछूती नहीं है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दौर में भाषा को एक अस्त्र के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। औपनिवेशिक युग में बतर्ज न्गुगी वा थ्योगो के अनुसार शारीरिक गुलामी के लिए गोलियों को साधन बनाया गया, लेकिन मानसिक और आर्थिक गुलामी भाषा के जरिए थोपी गई। भाषा चाहे कोई भी हो, उसका चरित्र हमेशा दोहरा होता है। यह संप्रेषण का माध्यम होने केसाथ-साथ संस्कृति का वाहक भी होती है। साम्राज्यवादी देश दूसरे मुल्कों पर भाषा और शिक्षा में ऐसी नीतियां अपनाने पर जोर देते रहे हैं, जिनसे उनका संास्कृतिक वर्चस्व बना रहे। संपर्क, संचार और शिक्षा की भाषा के रूप में अंग्रेजी इसका एक उदाहरण है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद में भाषा के पहलू को गंभीरता से समझने की जरुरत है। वैश्विक माध्यमों के जरिए ऐसी भाषा विकसित हो रही है, जो स्वभाव में पराई है। शब्दों को उनके मर्म से वंचित किया जा रहा है। शब्दों के मनमाने अर्थ गढ़े जा रहे हैं। सही मायनों में बाजार भाषा बना रहा है। ब्रेड और टूथपेस्ट की तरह भाषा का नियंत्रण भी मार्केट के हाथ में चला गया है। आदिकाल से भाषा किसी प्रयोगशाला में नहीं गढ़ी है। जनता ने अपने जीवन से भाषा को पैदा किया है। राजे-रजवाड़ों से इतर जनता की अपनी भाषा रही। गुलामी के लंबे समय में भी जनता की भाषा जिंदा रही,लेकिन वैश्वीकरण के आक्रमण से यह भाषा लाचार हो गई है। पूरी दुनिया की लोकभाषाएं इस हमले की जद में हैं। कुछ लुप्तप्राय हो गई हैं और कुछ पर संकट है। प्रतिवर्ष सैकड़ों लोकभाषाओं का वजूद धरती से खत्म हो रहा है। वैश्वीकरण जनता की भाषा को नहीं अपना रहा, वरन अपनी नई भाषा बना रहा है। इसने भाषा के कलेवर और फ्लेवर को बदल दिया है। हमला इतना सटीक है कि किसी को संभलने का मौका नहीं मिलता। हमले के लिए वैश्वीकरण के पास संचार के माध्यमों का पूरा जखीरा मौजूद है। यह अपनी जरुरत के हिसाब से हथियार तय करता है। स्थानीय समाचार पत्रों से लेकर आसमान में तैरते सैटेलाइट इसके एक हुक्म के इंतजार में हैं। आदेश के साथ कार्रवाई शुरू हो जाती है। वैश्वीकरण के दमकते बूटों का स्वागत करने के लिए भाषा बदली जा रही है। समाचार पत्रों की भाषा, एसएमएस की भाषा, इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा, नेट चैट की भाषा, क्या कहीं आपकों इसमे जनता की भाषा नजर आती है। विज्ञापन नई भाषा बाजार में उतार रहे हैं। बाजार और भाषा के संबंध को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध कोशकार अरविंद कुमार कहते हैं कि ङ्क्षहदी को उसका बाजार मरने नहीं देगा, लेकिन क्या भाषा की ङ्क्षजदगी बाजार तय करेगा? मार्केट उसी भाषा को बढ़ाएगा, जिससे वह खुद आगे बढ़े। इसी के चलते आज हिंग्लिस पैदा हो गई है। हिंग्लिस का अपना बाजार बन गया है। इसे भुनाने को अखबार और खबरियां चैनल भी जुट गए हैं। अखबारों के यूथ पेज और बड़े महानगरों में नए अखबारी संस्करणों में ङ्क्षहग्लिस का बाजार भुनाने की कवायद है। टेलीविजन के माध्यम से भाषा का विकृत स्वरूप नजर आता है। अमूल मैचो अंडरवियर के विज्ञापन में भाषा में जहां ये बड़ा टोइंग है इस्तेमाल किया गया, वहीं देहभाषा में शालीनता की सभी सीमाओं को पार कर दिया। वैश्वीकरण में इसे सृजनात्मकता करार दिया जाता है। क्या भाषा में यही सृजनात्मकता रह गई है? नब्बे के दौर के बाद की फिल्में द्विअर्थी संवादों और फूहड़ता से भरी हैं। दिलचस्प बात यह है कि आज अश्लीलता को कामेडी के नाम पर परोसा जा रहा है। इस पूरी लड़ाई के बीच भाषा बेबसी के साथ खड़ी है। हिंदी के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं पर भी वैश्वीकरण का असर साफ दिखता है। दरअसल वैश्वीकरण का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है। वह बाजार के रथ की रफ्तार को तेज करने आया है। इसमे भाषा को भी बाजार में लाकर पटक दिया है। बाजारी प्रतिस्पर्धा के बीच वही भाषा बचेगी, जिसका अपना मार्केट होगा। हिंदी जरुर अपने मार्केट के आधार पर इस लड़ाई में बच सकती है, लेकिन लोकभाषाओं पर संकट तय है।
गौरव

त्यागी
लेखक पत्रकारिता से संबंधित हैं।