बुधवार, 14 अगस्त 2013

जश्न और रस्म

लालकिले से पीएम ने देश को एक रटा-रटाया भाषण सुनाया। सूबों के सीएम और जनपदों में तैनात अफसरों ने भी आजादी के आयोजन की रस्म अदा कर दी। बीते 67 वर्षों से हम आजादी के जश्न को एक रस्म के तौर पर मनाते हैं। पतंगबाजी, स्कूलों में सांस्कृतिक कार्यक्रम और लालकिले से राजनैतिक संदेश।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम(1857) के बाद नब्बे वर्षों तक संयुक्त भारत में आजादी का संघर्ष चला। तन-मन और धन के साथ आजादी के दीवानों ने अपने सपने भी देश के नाम कर दिए। गांधी अंतिम आदमी तक आजादी की लौ ले जाना चाहते थे तो भगत सिंह सबको बराबरी के हक के पक्षधर थे। कुलमिलाकर जंगे आजादी में जूझ रहे सभी बड़े नेताओं के दिल में आजाद मुल्क के लिए बड़े सपने थे।
आजादी के बाद वे सपने कहीं खो गए। पहले देश दो टुकड़ों में बंटा। उसके बाद शुरू हुआ राजनेताओं का खेल। जमकर लूट मची। कौड़ियों के लोग करोड़ों में खेलने लगे। पीएम का भाषण सुना। सुनकर निराशा हुई। जम्मू में किश्तवाड़ जल रहा है। दक्षिण में तेलंगाना के नाम पर आंध्र सुलग रहा है। पूरे देश में रेड कारिडोर बिछ रहा है। चीन हमे आंख दिखा रहा है और पाकिस्तान सीमा पर फायरिंग कर रहा है। हमारे पास सुरक्षा को लेकर कोई रोडमैप नहीं है। देश के अंदर और बाहर चारों तरफ असुरक्षा की भावना है।
उत्तराखंड़ में आई बाढ़ के समय दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बेबस दिखाई दिया। हम प्रकृति के सामने पंगु थे। कमिया हमारी थी। हमें अपने कथित विकास का खामियाजा भुगतना था। 67 वर्ष बाद हमें फूड सिक्योरिटी बिल पास करना पड़ रहा है। कुपोषण और बीमारी से देश जकड़ा हुआ है। संसद हंगामे की भेंट चढ़ती है। मंत्री बने लोग अनाप-शनाप बयान देते हैं। मीडिया में बयाने देने और वापिस लेने की बाजीगरी है। कौन पीएम होगा। बहस गर्म है। देश के विकास का एजेंड़ा क्या है? यह मुद्दा गायब है। मैं निराशा की बात नहीं कर रहा, लेकिन जनता को जानने का हक है कि आखिर गद्दा संभालने वाले देश को किस दिशा में ले जाएंगे। आजादी के दिन विचारों की गुलामी से बाहर निकलने की कोशिश करनी चाहिए। हम पर नीतियां थोपी न जाएं। वे इस देश के हिसाब से बने। नीतियों में जनता की भागीदारी होगी। इसे लेकर पीएम कुछ बताते तो शायद अच्छा लगता। पर शायद हमने तो जश्न को रस्म मान लिया है। एक और 15 अगस्त है। वहीं पुराने कार्यक्रम। टीवी पर कुछ देशभक्ति की फिल्में। एफएम पर भुले-बिसरे गीत। बाहर बारिश का मौसम है। पकौड़े खाइये और टीवी देखिए। पकौड़ों से प्याज गायब मिलेगी। यह भी सरकार का कारनामा है। खुश रहिए। 15 अगस्त जो है।

सोमवार, 6 जून 2011

राजनीति जीती, जनता हारी

जेपी आंदोलन के लंबे समय बाद पूरा देश भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया। अन्ना के आंदोलन में दिल्ली और मुंबई की सड़कों पर युवाओं का सैलाब उतर आया तो सरकार बैकफुट पर आ गई। राजनीति बाजी चली। अन्ना के साथ समझौता किया। अनशन तुड़वाया। अब बातचीत में कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा। अन्ना बार-बार दिल्ली आते हैं और बेनतीजा वार्ता निपट जाती है। सत्ता चलाने वाले हुक्मरां अभी जनता के हाथ में लोकपाल का हथियार नहीं देना चाहते। अन्ना और उनके सहयोगी फिर अनशन की हुंकार भर रहे हैं। उधर हरिद्वार से दिल्ली आकर अनशन का दम भरने वाले रामदेव को राजनेताओं ने वापिस हरिद्वार भेज दिया है। सत्याग्रह के सहार अंग्रेजों को खदेड़ने वाले गांधी के अनुयायियों (कांग्रेस) ने देर रात सत्याग्रह का दमन कर दिया। पहले चिठ्टी में रामदेव फंसे तो फिर गिरफ्तारी के बाद आंदोलन टूट गया। साठ साल से भ्रष्ट तंत्र की जड़ें पाताल तक पहुंची हैं। ये एक अनशन से नहीं उखड़ने वाली। उधर भाजपा भी राजनैतिक लाभ की चाह नहीं रोक पाई। उसके बड़े नेता रात भर झूमते रहे। जनता भूख और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। उसका गुस्सा कभी अन्ना के आंदोलन में दिखता है तो कभी रामदेव के अनशन में। बार-बार जनता को राजनेताओं ने ठगा है। अब नेताओं पर विश्वास नहीं रहा तो वो सामाजिक कार्यकर्ताओं और योग गुरू में उम्मीद तलाश रही है, लेकिन राजनेता चतुर हैं। उन्होंने पूर आंदोलन की दिशा ही मोड़ दी है। भ्रष्टाचार के हमाम में सभी दल नंगें हैं। ऐसे में ड्रामा चल रहा है। वोट के गणित को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार हो रही है। देखते हैं सियासत का ये भ्रष्ट सफर कितना लंबा चलता है।

राजनीति जीती, जनता हारी

जेपी आंदोलन के लंबे समय बाद पूरा देश भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया। अन्ना के आंदोलन में दिल्ली और मुंबई की सड़कों पर युवाओं का सैलाब उतर आया तो सरकार बैकफुट पर आ गई। राजनीति बाजी चली। अन्ना के साथ समझौता किया। अनशन तुड़वाया। अब बातचीत में कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा। अन्ना बार-बार दिल्ली आते हैं और बेनतीजा वार्ता निपट जाती है। सत्ता चलाने वाले हुक्मरां अभी जनता के हाथ में लोकपाल का हथियार नहीं देना चाहते। अन्ना और उनके सहयोगी फिर अनशन की हुंकार भर रहे हैं। उधर हरिद्वार से दिल्ली आकर अनशन का दम भरने वाले रामदेव को राजनेताओं ने वापिस हरिद्वार भेज दिया है। सत्याग्रह के सहार अंग्रेजों को खदेड़ने वाले गांधी के अनुयायियों (कांग्रेस) ने देर रात सत्याग्रह का दमन कर दिया। पहले चिठ्टी में रामदेव फंसे तो फिर गिरफ्तारी के बाद आंदोलन टूट गया। साठ साल से भ्रष्ट तंत्र की जड़ें पाताल तक पहुंची हैं। ये एक अनशन से नहीं उखड़ने वाली। उधर भाजपा भी राजनैतिक लाभ की चाह नहीं रोक पाई। उसके बड़े नेता रात भर झूमते रहे। जनता भूख और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। उसका गुस्सा कभी अन्ना के आंदोलन में दिखता है तो कभी रामदेव के अनशन में। बार-बार जनता को राजनेताओं ने ठगा है। अब नेताओं पर विश्वास नहीं रहा तो वो सामाजिक कार्यकर्ताओं और योग गुरू में उम्मीद तलाश रही है, लेकिन राजनेता चतुर हैं। उन्होंने पूर आंदोलन की दिशा ही मोड़ दी है। भ्रष्टाचार के हमाम में सभी दल नंगें हैं। ऐसे में ड्रामा चल रहा है। वोट के गणित को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार हो रही है। देखते हैं सियासत का ये भ्रष्ट सफर कितना लंबा चलता है।

बुधवार, 19 मई 2010

दंतेवाड़ा के जख्म

असहाय चिदंबरम। खामोश मनमोहन। यूपी दौरे पर राहुल और सोनिया। छुट्टी मना रहे हैं गडकरी। भाजपा में गुटबाजी और वामपंथियों की चुप्पी, लेकिन दंतेवाड़ा में शहीद हुए लोगों के परिजन जबाव चाहते हैं। यह खामोशी तूफान का अंदेशा देती है। आखिर हुक्मरां चाहते क्या हैं? क्यों नक्सली समस्या के खात्मे के रास्ते नहीं तलाशे जाते? जवानों के खून पर आखिर कब तक राजनीति होगी?
दंतेवाड़ा में दो-दो बार खून बहा है। गृहमंत्री हाथ खड़े कर चुके हैं। मुख्य विपक्षी दल झारखंड़ में सत्ता का रास्ता निकल रहा है। राहुल मिशन यूपी पर सवार हैं तो माया और मुलायम एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। ममता बनर्जी तो शायद इसके लिए भी दंतेवाड़ा जाने वालों को ही जिम्मेदार ठहराएं। वे पहले ही रेलवे स्टेशन की भगदड़ पर ऐसा कर चुकी हैं। देश के बारे में कौन सोचेगा? भूख और गरीबी से जूझ रही जनता को नक्सल और आतंकवाद के सामने खुला छोड़ दिया गया है। जनता बेचैन है, लेकिन दिल्ली ने खामोश चादर ओढ़ ली है। लगता है अभी देश की सियासत को कई रंग देखने हैं।

बुधवार, 5 मई 2010

खेल संघों की जंग


खेल संघों को लेकर जंग जारी है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए संघ पदाधिकारी एक मंच पर आ गए हैं। काश कभी खेलों के लिए ऐसी एकजुटता देखने को मिलती तो भारतीय खेलों की हालत कुछ और होती। लंबे समय से कुर्सी पर काबिज राजनीतिज्ञ और नौकरशाह हो-हल्ला कर रहे हैं। आखिर उन्हें खेल संघों की कुर्सी क्यों चाहिए? दरअसल सालों से खेलों के नाम पर उनका विकास हो रहा है।क्रिकेट बोर्ड तो दुनिया का सबसे ज्यादा पैसे वाली संस्था है, लेकिन दूसरे खेल संघों में भी खेलों के नाम पर घपला कम नहीं है। तभी तो कलमाड़ी, गिल और मल्होत्रा जैसे लोग प्रधानमंत्री से गुहार लगा रहे हैं। भारत में पैसे के अभाव में प्रतिभा दम तोड़ देती हैं और दूसरी तरफ खेलसंघों के नाम पर नौकशाह और नेता ऐश कर रहे हैंं। कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है और सभी को उसका स्वागत करना चाहिए।अब थोड़ी सी गंभीर कोशिश खेलों को सुधारने की भी हो जाए।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

बंदूक और विकास

नक्सलवाद को लेकर देश में हो-हल्ला हो रहा है। पक्ष और विपक्ष सभी इस मामले में एकजुट है। सभी चाहते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाकों में सख्त कार्रवाई हो। कुछ तो हवाई हमले के भी पक्षधर है, लेकिन हम सभी समस्या के मूल से बहुत पीछे हट रहे हैं। देश का आम नागरिक होने के बाद भी आदिवासियों को उनका हक नहीं मिला। जल, जंगल और जमीन के लिए वे संघर्ष कर रहे हैं। नक्सली उनके बीच जाकर काम करते हैं और हम एअर कंडीशन कमरों में बैठकर कार्रवाई के बारे में सोचते हैं। तमाम आतंकी वारदातों के बाद भी हम पाक के सात वार्ता करते हैं, लेकिन नक्सलियों के मामले में ऐसा नहीं है। देश के भटके हुए युवा को मुख्यधारा में जोडऩे का प्रयास करना चाहिए। आदिवासियों को चिंता है कि उनके संसाधन कारपोरेट घरानों को सौंप दिए जाएंगे। यह चिंता वाजिब है। देश में निजीकरण का दौर है और प्राकृतिक संसाधनों को कब्जाने की जंग जारी है।ऐसे में नक्सली आदिवाशियों को यही डर दिखाते हैं। नक्सलवाद का खात्मा बंदूक नहीं विकास से हो सकता है।गांधी के देश में उनके ही सिद्धातों को भुला दिया गया। भगवान राम भी वनवासियों के बीच चौदह साल रहे और उन्हें मुख्यधारा में जोड़ा तो फिर आज के हुक्मरां ग्रीन हंट पर भरोसा क्यों कर रहे हंै? कहीं इसके पीछे भी मल्टीनेशनल कंपनियों का दिमाग तो नहीं? देश को जनता को जानने का हक है कि आखिर इस समस्या से निपटने का सरकार के पास क्या हल है? वक्त आ गया है कि सभी राजनैतिक दलों को इस मामले पर अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

आईपीएल-इंडियन पैसा लीग










आईपीएल के उठे विवाद ने क्रिकेट जगत में तूफान ला दिया है। एक केंद्रीय मंत्री को जाना पड़ा तो आईपीएल चेयरमैन की विदाई पटकथा लिखी जा चुकी है। पैसा, पावर और ग्लैमर के घालमेल ने आईपीएल में क्रिकेट का नया रूप दिखाया है। बाजार इस खेल के नियम तय कर रहा है। खेल को अपने तरीकों से बाजार ने बदल दिया। यह बाजार का जलवा है कि मैथू हैडन के हाथ में मंगूज बल्ला नजर आता है। वालीवुड की तमाम सुंदरियां आईपीएल मैचों में नजर आती हंै। देश के बड़े-बड़े उद्योगपति मैदान के बाहर ताली बजा रहे हैं। लिकर किंग विजय माल्या, उद्योगपति मुकेश अंबानी टीमों का हौंसला बढ़ा रहे हैं। उधर ग्लैमर का तड़का भी कुछ कम नहीं है। शिल्पा शेट्टी, शहारुख खान, प्रिटी जिंटा सभी दल-बल के साथ मैदान पर हाजिर हंै। दरअसल यह क्रिकेट की दीवानगी नहीं है।क्रिकेट तो पहले भी खेला जाता था, तब माल्या और अंबानी नजर नहीं आते थे। यह क्रिकेट का बाजार है। करोडों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। ऐसे में यहां भ्रष्टाचार की दलदल होना लाजमी था। आईपीएल केवल खेल नहीं रहा, व्यापार हो गया है। नेताओं का कालाधन इसमे लगा है। बीते बीस सालों में क्रिकेट में अकूत धन आया है। सभी प्रदेशों के क्रिकेट बोर्डों पर नजर डालें तो सत्ताधारी दलों का कब्जा है। अब क्रिकेट दुधारू गाय है और सभी उसे दुहना चाहते हैं। थरुर और मोदी तो केवल एक उदाहरण है। इस हमाम में सभी नंगे हैं। यह तो केवल शुरुआत है। अभी तो हमें बड़े-बड़े खुलासों का सामना करना है। थुरुर के मामले में साफ है कि राजनेता किस तरह आर्थिक हितों को प्रभावित करते हैं। जनता के तथाकथित सेवकों के एक इशारे पर करोड़ों की सौगात मिल जाती है। अब आईपीएल से सट्टेबाजी की बू भी आ रही है। अगर जांच सही तरह हुई( जिसकी कम संभावना है) तो कई बड़ों की गर्दन फंसती नजर आएगी। तीसरा सीजन पूरा होते-होते मोदी की विदाई तय हो गई है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पूरे मामले पर चुप्पी साधे बैठे रहे बीसीसीआई और सरकार का दामन पाक-साफ है। अब तो आईपीएल के छींटे शरद पवार पर भी पड़ रहे हैं। देखते हैं कि इंडियन पैसा लीग का यह ऊंट किस करवट बैठता है।
----- गौरव त्‍यागी