सोमवार, 15 मार्च 2010

बाजार और भाषा

बाजार और भाषानब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के लिए खुली देश की खिड़कियों से अंदर आया तूफान अपना असर दिखाने लगा है। वैश्वीकरण का आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है। बाजार के रथ पर सवार होकर कुलाचें भर रहे वैश्वीकरण ने मूल्य-मान्यताओं को बदल दिया है। घर के बैडरुम में घुसकर ग्लोबल रिमोट समाज को संचालित कर रहा है। लोकल और ग्लोबल का भेद मिट गया है। बाजार के तेज दौड़ते पहिए नए मानक गढ़ रहे हैं। यह दौड़ इतनी तेज है कि किसी को संभलने का मौका नहीं मिलता, बस सबको दौडऩा है। गत डेढ़ दशक में वैश्वीकरण ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। इसका असर गांव से लेकर शहर और अभिजात्य वर्ग से गरीब वर्ग पर साफ दिखता है। भाषा भी इससे अछूती नहीं है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दौर में भाषा को एक अस्त्र के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। औपनिवेशिक युग में बतर्ज न्गुगी वा थ्योगो के अनुसार शारीरिक गुलामी के लिए गोलियों को साधन बनाया गया, लेकिन मानसिक और आर्थिक गुलामी भाषा के जरिए थोपी गई। भाषा चाहे कोई भी हो, उसका चरित्र हमेशा दोहरा होता है। यह संप्रेषण का माध्यम होने केसाथ-साथ संस्कृति का वाहक भी होती है। साम्राज्यवादी देश दूसरे मुल्कों पर भाषा और शिक्षा में ऐसी नीतियां अपनाने पर जोर देते रहे हैं, जिनसे उनका संास्कृतिक वर्चस्व बना रहे। संपर्क, संचार और शिक्षा की भाषा के रूप में अंग्रेजी इसका एक उदाहरण है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद में भाषा के पहलू को गंभीरता से समझने की जरुरत है। वैश्विक माध्यमों के जरिए ऐसी भाषा विकसित हो रही है, जो स्वभाव में पराई है। शब्दों को उनके मर्म से वंचित किया जा रहा है। शब्दों के मनमाने अर्थ गढ़े जा रहे हैं। सही मायनों में बाजार भाषा बना रहा है। ब्रेड और टूथपेस्ट की तरह भाषा का नियंत्रण भी मार्केट के हाथ में चला गया है। आदिकाल से भाषा किसी प्रयोगशाला में नहीं गढ़ी है। जनता ने अपने जीवन से भाषा को पैदा किया है। राजे-रजवाड़ों से इतर जनता की अपनी भाषा रही। गुलामी के लंबे समय में भी जनता की भाषा जिंदा रही,लेकिन वैश्वीकरण के आक्रमण से यह भाषा लाचार हो गई है। पूरी दुनिया की लोकभाषाएं इस हमले की जद में हैं। कुछ लुप्तप्राय हो गई हैं और कुछ पर संकट है। प्रतिवर्ष सैकड़ों लोकभाषाओं का वजूद धरती से खत्म हो रहा है। वैश्वीकरण जनता की भाषा को नहीं अपना रहा, वरन अपनी नई भाषा बना रहा है। इसने भाषा के कलेवर और फ्लेवर को बदल दिया है। हमला इतना सटीक है कि किसी को संभलने का मौका नहीं मिलता। हमले के लिए वैश्वीकरण के पास संचार के माध्यमों का पूरा जखीरा मौजूद है। यह अपनी जरुरत के हिसाब से हथियार तय करता है। स्थानीय समाचार पत्रों से लेकर आसमान में तैरते सैटेलाइट इसके एक हुक्म के इंतजार में हैं। आदेश के साथ कार्रवाई शुरू हो जाती है। वैश्वीकरण के दमकते बूटों का स्वागत करने के लिए भाषा बदली जा रही है। समाचार पत्रों की भाषा, एसएमएस की भाषा, इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा, नेट चैट की भाषा, क्या कहीं आपकों इसमे जनता की भाषा नजर आती है। विज्ञापन नई भाषा बाजार में उतार रहे हैं। बाजार और भाषा के संबंध को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध कोशकार अरविंद कुमार कहते हैं कि ङ्क्षहदी को उसका बाजार मरने नहीं देगा, लेकिन क्या भाषा की ङ्क्षजदगी बाजार तय करेगा? मार्केट उसी भाषा को बढ़ाएगा, जिससे वह खुद आगे बढ़े। इसी के चलते आज हिंग्लिस पैदा हो गई है। हिंग्लिस का अपना बाजार बन गया है। इसे भुनाने को अखबार और खबरियां चैनल भी जुट गए हैं। अखबारों के यूथ पेज और बड़े महानगरों में नए अखबारी संस्करणों में ङ्क्षहग्लिस का बाजार भुनाने की कवायद है। टेलीविजन के माध्यम से भाषा का विकृत स्वरूप नजर आता है। अमूल मैचो अंडरवियर के विज्ञापन में भाषा में जहां ये बड़ा टोइंग है इस्तेमाल किया गया, वहीं देहभाषा में शालीनता की सभी सीमाओं को पार कर दिया। वैश्वीकरण में इसे सृजनात्मकता करार दिया जाता है। क्या भाषा में यही सृजनात्मकता रह गई है? नब्बे के दौर के बाद की फिल्में द्विअर्थी संवादों और फूहड़ता से भरी हैं। दिलचस्प बात यह है कि आज अश्लीलता को कामेडी के नाम पर परोसा जा रहा है। इस पूरी लड़ाई के बीच भाषा बेबसी के साथ खड़ी है। हिंदी के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं पर भी वैश्वीकरण का असर साफ दिखता है। दरअसल वैश्वीकरण का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है। वह बाजार के रथ की रफ्तार को तेज करने आया है। इसमे भाषा को भी बाजार में लाकर पटक दिया है। बाजारी प्रतिस्पर्धा के बीच वही भाषा बचेगी, जिसका अपना मार्केट होगा। हिंदी जरुर अपने मार्केट के आधार पर इस लड़ाई में बच सकती है, लेकिन लोकभाषाओं पर संकट तय है।
गौरव

त्यागी
लेखक पत्रकारिता से संबंधित हैं।

1 टिप्पणी:

  1. आपने सही लिखा है कि लोकभाषाओं के लिए संकट है। लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता है। जहां तक हिंदी का सवाल है, इसका बाजार इतना व्यापक हो गया है कि अब इसे चिंता करने की जरूरत नहीं है। आने वाले चालीस-पचास वर्षों में हिंदी विश्व की सबसे समृद्ध भाषाओं में होगी।

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