बुधवार, 19 मई 2010

दंतेवाड़ा के जख्म

असहाय चिदंबरम। खामोश मनमोहन। यूपी दौरे पर राहुल और सोनिया। छुट्टी मना रहे हैं गडकरी। भाजपा में गुटबाजी और वामपंथियों की चुप्पी, लेकिन दंतेवाड़ा में शहीद हुए लोगों के परिजन जबाव चाहते हैं। यह खामोशी तूफान का अंदेशा देती है। आखिर हुक्मरां चाहते क्या हैं? क्यों नक्सली समस्या के खात्मे के रास्ते नहीं तलाशे जाते? जवानों के खून पर आखिर कब तक राजनीति होगी?
दंतेवाड़ा में दो-दो बार खून बहा है। गृहमंत्री हाथ खड़े कर चुके हैं। मुख्य विपक्षी दल झारखंड़ में सत्ता का रास्ता निकल रहा है। राहुल मिशन यूपी पर सवार हैं तो माया और मुलायम एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। ममता बनर्जी तो शायद इसके लिए भी दंतेवाड़ा जाने वालों को ही जिम्मेदार ठहराएं। वे पहले ही रेलवे स्टेशन की भगदड़ पर ऐसा कर चुकी हैं। देश के बारे में कौन सोचेगा? भूख और गरीबी से जूझ रही जनता को नक्सल और आतंकवाद के सामने खुला छोड़ दिया गया है। जनता बेचैन है, लेकिन दिल्ली ने खामोश चादर ओढ़ ली है। लगता है अभी देश की सियासत को कई रंग देखने हैं।

बुधवार, 5 मई 2010

खेल संघों की जंग


खेल संघों को लेकर जंग जारी है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए संघ पदाधिकारी एक मंच पर आ गए हैं। काश कभी खेलों के लिए ऐसी एकजुटता देखने को मिलती तो भारतीय खेलों की हालत कुछ और होती। लंबे समय से कुर्सी पर काबिज राजनीतिज्ञ और नौकरशाह हो-हल्ला कर रहे हैं। आखिर उन्हें खेल संघों की कुर्सी क्यों चाहिए? दरअसल सालों से खेलों के नाम पर उनका विकास हो रहा है।क्रिकेट बोर्ड तो दुनिया का सबसे ज्यादा पैसे वाली संस्था है, लेकिन दूसरे खेल संघों में भी खेलों के नाम पर घपला कम नहीं है। तभी तो कलमाड़ी, गिल और मल्होत्रा जैसे लोग प्रधानमंत्री से गुहार लगा रहे हैं। भारत में पैसे के अभाव में प्रतिभा दम तोड़ देती हैं और दूसरी तरफ खेलसंघों के नाम पर नौकशाह और नेता ऐश कर रहे हैंं। कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है और सभी को उसका स्वागत करना चाहिए।अब थोड़ी सी गंभीर कोशिश खेलों को सुधारने की भी हो जाए।