असहाय चिदंबरम। खामोश मनमोहन। यूपी दौरे पर राहुल और सोनिया। छुट्टी मना रहे हैं गडकरी। भाजपा में गुटबाजी और वामपंथियों की चुप्पी, लेकिन दंतेवाड़ा में शहीद हुए लोगों के परिजन जबाव चाहते हैं। यह खामोशी तूफान का अंदेशा देती है। आखिर हुक्मरां चाहते क्या हैं? क्यों नक्सली समस्या के खात्मे के रास्ते नहीं तलाशे जाते? जवानों के खून पर आखिर कब तक राजनीति होगी?
दंतेवाड़ा में दो-दो बार खून बहा है। गृहमंत्री हाथ खड़े कर चुके हैं। मुख्य विपक्षी दल झारखंड़ में सत्ता का रास्ता निकल रहा है। राहुल मिशन यूपी पर सवार हैं तो माया और मुलायम एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। ममता बनर्जी तो शायद इसके लिए भी दंतेवाड़ा जाने वालों को ही जिम्मेदार ठहराएं। वे पहले ही रेलवे स्टेशन की भगदड़ पर ऐसा कर चुकी हैं। देश के बारे में कौन सोचेगा? भूख और गरीबी से जूझ रही जनता को नक्सल और आतंकवाद के सामने खुला छोड़ दिया गया है। जनता बेचैन है, लेकिन दिल्ली ने खामोश चादर ओढ़ ली है। लगता है अभी देश की सियासत को कई रंग देखने हैं।
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